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यूँ हीं…. (2)
यूँ हीं….
…..खोना
मैगी – The Bachelor’s Lifeline
Students-Hostellers का रखती ख्याल है Maggi
Bachelors के लिए तो कसम से बवाल है Maggi
Breakfast, Lunch या dinner खाओ जब भी जी चाहे
Utilization की जीती जागती मिसाल है Maggi
Egg, Chiken, Paneer, veg कितने रूप हैं इसके
मनभावन स्वाद की एक तरण-ताल है Maggi
महगाई का जवाब तो नहीं सरकार के भी पास
खुद महगाई के लिए बन गयी सवाल है Maggi
कुछ और ना हो इसका स्टॉक में होना जरुरी है
अपने लिए तो जैसे चावल-दाल है Maggi
मियां-बीवी जो दोनों लौटे थक के ऑफिस से
फिर dinner में अक्सर होती इस्तेमाल है Maggi
कभी था डर बीवी रूठी तो सोना पड़ेगा भूखे ही
अबला पुरुषों के लिए बन गयी ढाल है Maggi
टेडी-मेडी, सुखी-गीली फिर भी स्वाद में डूबी
बयां करती है क्या ज़िन्दगी का हाल है Maggi
गुजारी हमने कैसे ज़िन्दगी, मत पूछ ‘आलसी’
कि मेरी ज़िन्दगी के भी कई साल हैं Maggi
……………………..By Shubhashish Pandey ‘आलसी’
खुशनसीब …… या बदनसीब….
वो अक्सर मेरे पास मुस्कुराते हुए आता
और बड़े गुमान से बताता
यार !
मुझे तो कभी हुआ ही नहीं
‘ये प्यार’ ….
एक दिन मुझसे भी जवाब निकल ही गया
जाने तुझे क्या कहना चाहिए
खुशनसीब ……
की तुझे कभी
गुजरना नहीं पड़ा
दर्द के उस सैलाब से
जो कई बार दे जाता है उम्र भर की उदासी
या
बदनसीब….
की तुझे कभी
एहसास ही नहीं हुआ
दुनिया की उस सबसे खुबसूरत चीज़ का
जिसके लिए लोग
जानते हुए भी
हर दर्द को उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं ………
सिर्फ उस एहसास के लिए …
वही एहसास …
जो इन्सान को…. इन्सान बनाता है
……………. Shubhashish
बला का नाम है बीवी
जीवन में ढलती खुशियों की शाम है बीवी
जो पढ़ी नहीं सिर्फ सुनी जाये वो कलाम है बीवी
सर चढ़ गयी तो फिर कुछ भी अपने बस में नहीं
ये जान के भी जो पी जाये वो जाम है बीवी
क्यों मारी पैर पे कुल्हाड़ी जेहन में उनके है अब
जो सोचते थे चक्कर काटने का इनाम है बीवी
अरेंज मर्डर हुआ हो या इश्क में खुद ही चढ़ गए सूली
जो सब को झेलनी, ऐसी उलझनों आम है बीवी
सजा तय है जो जुर्म किया हो न किया हो
रोयी नहीं की फिर क्या सबूत क्या इलज़ाम है बीवी
माँ की कहानियों में ही होती थी सावित्री, दमयंती
मगर अब शहरी चका-चौंध की गुलाम है बीवी
क्या करो, ओढो, पहनो ये बताने की जुर्रत किसको
पर क्या ये खर्चे मेरे पसीने का दाम है बीवी
माँ-बाप पीछे पड़े हैं कैसे समझाऊ उन्हें
बदलते दौर में किस बला का नाम है बीवी
कुंवारा हूँ सो कह लूं आज जो कुछ भी कहना है
कल तो लिखना ही है खुदा का पैगाम है बीवी
…………………………. Shubhashish
Note: ये सिर्फ हास्य के लिए लिखी गयी कविता है! कृपया इसे किसी अन्य दृष्टी से न देखें !
कहीं से भी इस कविता का उद्देश्य नारी का उपहास करना नही है! फिर भी यदि किसी की भावनाओं को ठेस पहुची हो तो उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ !
– शुभाशीष
ऐसा था मेरा बचपन
गोलियों वाली स्लेट और चुने की खड़िया
मचल जाता था देख मन चूरन की पुडिया
कभी खेलते थे लूडो कभी छुपा छुपायी
कभी प्लास्टिक किचेन सेट, कभी गुड्डे गुडिया
बांस के ऊपर लपेट लाता, लटपटी मिठाई वाला
जादू लगता जब वो बनाये उससे घडी, बिच्छू, माला
खुद खायी भी और दीदी को खिलाते आईसक्रीम
फिर बताते तुम्हारा ही पैसा था गद्दे के नीचे वाला
बिजली कटने पे भी हम जश्न मनाया करते थे
छत पे जुट अन्ताक्षरी के गाने गाया करते थे
किसी का घर बनने को जब गिरता था बालू
रेत के घर बना उसे खूब सजाया करते थे
क्लास टीचर मेरी ही कांपी झाकती थी
जाने क्यों हर रोज वो मुझी को डांटती थी
स्कूल जाना तो कभी मुझको मंजूर नहीं था
पर पापा के आगे मेरी रूह कापतीं थी
स्कूल न जाने के १०० बहाने फ्लॉप हो जाते थे
जब मेरे सामने गुस्से में खड़े मेरे बाप हो जाते थे
पर स्कूल वालों से हमें कभी डरना नहीं आया
क्या क्या न हुआ पर होम-वर्क कभी करना नहीं आया
उनके लिए हम कितने जतन कर कर के मर गए
पर किसी को हमारी लिखावट कभी पढना नहीं आया
आँखे रंगोली से खुलती फिर चाय की प्याली
अक्सर आती थी सन्डे को जिलेबी गर्म वाली
राम-लक्ष्मण के दर्शन को लग जाता वहां मेला
टीवी हो जिसके घर में छोटी या बड़ी वाली
अलिफ़ लैला सिन्ध्बाद और तिलस्मी जंजिरा
सन्डे होता था हमारी खुशियों का जखीरा
विक्रम बेताल और वो दादा दादी की कहानियां
प्यारा बहुत था हमे मोगली और बगीरा
एक रुपया मुठ्ठी में आया नहीं की
सारी दुनिया की खुशियाँ मुठ्ठी में हो जाती
क्या नहीं खरीद सकता हूँ मैं इससे बोलो
आज सोच के ही कितनी हसी है आती
ऐसा नहीं की पढने में न हो इंटरेस्ट मेरा
कई किताबों का घर में लगा रहता था डेरा
पिंकी, बिल्लू, चंपक भी घर आते जाते
चंदामामा और नंदन का यहीं था बसेरा
पर नागराज था हमको जान से प्यारा
सुपर कमांडो ध्रुव भी था अच्छा दोस्त हमारा
बांकेलाल की चाल हमेशा पड़ती थी उल्टी
डोगा से कांपता था रात को अंडरवर्ल्ड सारा
दाल में काला सबको नज़र आने लगा था
वक़्त किताबों में मैं कैसे बिताने लगा था
बुक में छुपा कामिक्स पढता जब पकड़ा गया मैं
दिन में तारे दिखे और अँधेरा छाने लगा था
बहुत तेज है चाचा चौधरी का दिमाग पढ़ा था
फट जाये ज्वालामुखी साबू का गुस्सा इतना बड़ा था
पर पापा के गुस्से की हकीक़त कुछ यूँ सामने आई
टुकड़े टुकड़े हो नागराज ज़मीन पे बिखरा पड़ा था
स्कुल में हालत मेरी कुछ हो गयी थी ऐसी
मार-मार कर बिगड़ी मशीन का पुर्जा बना देते थे
माँ भेजती थी की बेटा पढ़ लिख के इंसान बन जायेगा
और वो थे की हर रोज मुझे मुर्गा बना देते थे
जब पापा की जेब से आखरी बार १० की नोट उड़ाई
लगा ‘आज तो गए हम’, यूँ बात सबके सामने आई
पापा की ख़ामोशी और माँ के आंसू ने दर्द इतना दिया कि
रोया बहुत माँ से लग के, और कसमें भी खायी
आवारा कुत्ते के बच्चों को घर में ला के मैं छुपाता
रोटी दूध खिला-खिला कर खूब प्यार उसपे लुटाता
पर आधी रात को पापा तब मेरी खबर अच्छे से लेते
जब वो कुं-कुं-कुं-कुं चिल्ला कर, पूरी दुनिया को जगाता
जब से वो आई थी बस ख़याल उसी का रहता था
साथ ही आता जाता था, साथ ही उसके रहता था
जिसके आगे दुनियां की सारी चीज़ें बेकार थी
सच कहता हूँ वो मेरी साईकिल मेरा पहला प्यार थी
क्रिकेट में इंडिया की हालत जब बिगड़ने लगती
टीवी के बाजु भगवान की फोटो सजने लगती
सचिन के आउट होते ही खड़ा हो जाता था संकट
फिर अपनी गली क्रिकेट वापस चलने लगती
मैदान हो या छत, कोई जगह नहीं बच पाती
क्रिकेट तो क्लास में किताब से भी खेली जाती
पर जाने क्या प्यार था बाल को सड़क की नाली से
हर दुसरे शाट पे वो कमबख्त नाली में ही जाती
एक नयी डगर पे ज़िन्दगी जाने लगी थी
बात हमको भी समझ अब आने लगी थी
बचपन तब ख़तम होता लगने लगा जब
किसी से आँखे अक्सर टकराने लगी थी
जैसे भी हैं, वो हर लम्हे हैं मुझको बहुत प्यारे
माँ पिताजी को शत शत बार नमन
बस इतना ही था कहना ,यही कहानी है मेरी
ये था मैं और “ऐसा था मेरा बचपन”
……………….. Shubhashish
I love you Mom. I love you Dad.
थोडा रोने के बाद
कमबख्त! अजीब खेल है ये इश्क और दीवानगी का,
चैन उम्मीद करते हैं खुद को कांटे चुभोने के बाद,
क्या चला गया ये सोचना तो फिजूल ही था,
क्या रह गया, ये सोचा नहीं तुझे खोने के बाद,
तबसे ना देखा तुझे ना तेरा नाम जुबान पे आने दिया,
पर क्यों नहीं काबू रहता खुद पे सोने के बाद,
बेशक लोग देते होंगे हसने को तब्बजो,
पर हमें सुकून आता है थोडा रोने के बाद!
………………………. Shubhashish
नमन
शिक्षक दिवस के अवसर पर ये चार पंक्तियाँ गुरुजनों को समर्पित …
ज्ञान से ज्यादा मूल्यवान क्या है इस संसार में,
दान से बड़ा दूसरा कृत्य क्या है इस ब्रह्माण्ड में,
जो ज्ञान दान से हृदय प्रकाशित करते हैं मुझ तुच्छ का,
शत बार शीष झुकाता हूँ उन गुरुवों के सम्मान में !
……………………………… Shubhashish