यूँ कहने को तो कई दिल-अजीज सा है वो,
पर फिर भी सच में बड़ा अजीब सा है वो,
दिन रात गैरों को वही सब बाटता रहता,
जिस चीज़ के लिए खुद बहुत गरीब सा है वो,
कितने दोस्त हैं उसके ज़माने भर में लेकिन,
खुद अपनी किस्मत के लिए एक रकीब सा है वो,
तमाम सितारों के बीच में भी जो तन्हा ही रह जाता,
कुछ वैसे ही चाँद जैसा नसीब सा है वो,
भाई भाई के खून का जहाँ प्यासा हो गया,
उस ज़माने में भी एक अदब तहजीब सा है वो,
जब नीद नहीं आती तो उसको सोचता हूँ मैं,
वक़्त गुजारने को, मेरे लिए, एक तरकीब सा है वो,
………………………………….. Shubhashish